मधुबनी चित्रकला


मधुबनी चित्रकला 





कहा जाता है कि भारत में 64 कलाएं प्रचलित थीं और उन्हीं में से एक है चित्रकला। भारत के विभिन्न स्थानों पर अलग - अलग चित्रकलाएं प्रचलित हैं और उन्हीं में से एक है बिहार की मधुबनी चित्रकला। और आज  पूरे विश्व में मधुबनी चित्रकला के प्रशंसक हैं। नई दिल्ली में कला और शिल्प संग्रहालय, दरभंगा में चंद्रधारी मिथिला संग्रहालय, बेल्जियम में सेक्रेड आर्ट संग्रहालय, जापान में मिथिला संग्रहालय, नॉर्वे के संग्रहालय में और ऐसे कई महत्वपूर्ण संग्रहालयों में मधुबनी चित्रों के बड़े संग्रह रखे हैं। इसके अलावा, कई आधुनिक कलाकार, दोनों स्व-प्रशिक्षित और किसी अकादमी से शिक्षित, दृश्य भाषा विज्ञान के साथ अपने प्रयोग के रूप में, तथा निर्मल आनंद के लिए, मधुबनी शैली की चित्रकला का अभ्यास करते हैं। विद्वान और उत्साही चित्र संग्रहकर्ता, देशज कला प्रोत्साहक तथा सामान्य जन जिन्हें शायद ही ललित कला की बारीकियों का पता है, लेकिन वे भी मधुबनी चित्रकारी की सादगी और सजीवता का समान रूप से आनंद लेते हैं और मधुबनी चित्रों का संग्रह करते हैं।


मधुबनी चित्रकला अथवा मिथिला पेंटिंग मिथिला क्षेत्र जैसे बिहार के दरभंगा, पूर्णिया, सहरसा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी एवं नेपाल के कुछ क्षेत्रों की प्रमुख चित्रकला है। प्रारम्भ में रंगोली के रूप में रहने के बाद यह कला धीरे-धीरे आधुनिक रूप में कपड़ो, दीवारों एवं कागज पर उतर आई है। मिथिला की औरतों द्वारा शुरू की गई इस घरेलू चित्रकला को पुरुषों ने भी अपना लिया है।वर्तमान में मिथिला पेंटिंग के कलाकारों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मधुबनी व मिथिला पेंटिंग के सम्मान को और बढ़ाये जाने को लेकर तकरीबन 10,000 sq/ft में मधुबनी रेलवे स्टेशन के दीवारों को मिथिला पेंटिंग की कलाकृतियों से बनाया गया है।



मिथकों के अनुसार  माना जाता है, ये चित्र राजा जनक ने राम-सीता के विवाह के दौरान महिला कलाकारों से बनवाए थे। मिथिला क्षेत्र के कई गांवों की महिलाएँ इस कला में दक्ष हैं। अपने असली रूप में तो ये पेंटिंग गांवों की मिट्टी से लीपी गई झोपड़ियों में देखने को मिलती थी, लेकिन इसे अब कपड़े या फिर पेपर के कैनवास पर खूब बनाया जाता है। समय के साथ साथ चित्रकार कि इस विधा में पासवान जाति के समुदाय के लोगों द्वारा राजा शैलेश के जीवन वृतान्त का चित्रण भी किया जाने लगा। इस समुदाय के लोग राजा शैलेश को अपने देवता के रूप में पूजते भी हैं।

चटख रंगों का इस्तेमाल खूब किया जाता है। जैसे गहरा लाल रंग, हरा, नीला और काला। कुछ हल्के रंगों से भी चित्र में निखार लाया जाता है, जैसे- पीला, गुलाबी और नींबू रंग। यह जानकर हैरानी होगी की इन रंगों को घरेलू चीजों से ही बनाया जाता है, जैसे- हल्दी, केले के पत्ते, लाल रंग के लिऐ पीपल की छाल प्रयोग किया जाता है।  भित्ति चित्रों के अलावा अल्पना का भी बिहार में काफी चलन है। इसे बैठक या फिर दरवाजे के बाहर बनाया जाता है। पहले इसे इसलिए बनाया जाता था ताकि खेतों में फसल की पैदावार अच्छी हो लेकिन आजकल इसे घर के शुभ कामों में बनाया जाता है। चित्र बनाने के लिए माचिस की तीली व बाँस की कलम को प्रयोग में लाया जाता है। रंग की पकड़ बनाने के लिए बबूल के वृक्ष की गोंद को मिलाया जाता है।

इस चित्र में खासतौर पर कुल देवता का भी चित्रण होता है। हिन्दू देव-देवताओं की तस्वीर, प्राकृतिक नजारे जैसे- सूर्य व चंद्रमा, धार्मिक पेड़-पौधे जैसे- तुलसी और विवाह के दृश्य देखने को मिलेंगे। 


समय के साथ मधुबनी चित्र को बनाने के पीछे के मायने भी बदल चुके हैं, लेकिन ये कला अपने आप में इतना कुछ समेटे हुए हैं कि यह आज भी कला के कद्रदानों की चुनिन्दा पसंद में से है।

भारत सरकार ने 1970 में, अग्रणी मधुबनी कलाकार जगदंबा देवी को सम्मानित कर, मधुबनी चित्रकारों के योगदान को मान्यता दी। 2008 में एक अन्य कलाकार महासुंदरी देवी को पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। कला को बढ़ावा देने वाली, दोनों, सार्वजनिक और निजी संस्थाएँ आज, मधुबनी चित्रकला को दुनिया के लिए, भारत के निश्चित सांस्कृतिक योगदानों में से एक मानती हैं और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मधुबनी चित्रकला को सम्मान और उत्साह के साथ बढ़ावा देती हैं। ललित कला अकादमी का यह संग्रह मधुबनी चित्रकला की विरासत को मजबूत बनाए रखने के लिए ऐसा ही एक प्रयास है।


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