जैनशैली/अपभ्रंश शैली


जैनशैली/अपभ्रंश शैली


 7विन से 12वीं शताब्दी तक संपूर्ण भारत को प्रभाव करने वाली शैली में जैन शैली का प्रमुख स्थान है।

जैन शैली के नामकरण के विषय में विद्वानों में अनेक मतभेद हैं।  इसे पश्चिम भारतीय शैली या अपभ्रंश शैली आदि नामों से भी पुकारा गया है।  इसके अलावा इसे गुजरात शैली भी कहा गया है। 





जैनशैली का प्रथम प्रमाण सित्तनवासन  की गुफा में बनी उन पांच जैनमूर्तियों से प्राप्त होते  हैं  जो 7वीं शताब्दी के पल्लव नरेश महेंद्र वर्मन के शासनकाल में बनी थीं।

इस चित्रकला शैली के चित्र श्वेताम्बर जैन शैली से सम्बंधित हैं। 

भारतीय चित्रकलाओं में कागज पर की गई  चित्रकारी में  इसका प्रथम स्थान है।


जैन चित्रकला शैली में जैन तीर्थंकरों-पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, ऋषभनाथ, महावीर स्वामी आदि के चित्र सर्वाधिकार प्राचीन हैं।

जैन चित्रकला का नाम जैन ग्रंथो के ऊपर लगी दफ्तियां या लकादी की पटरियां पर भी मिलता है जिसमें  सिमित रेखाओं के द्वारा  भावाभिव्यक्ति की है  तथा आंखों के बड़े सुंदर चित्र बने हैं।

जैन कल्पसूत्र की प्रतियां अनेक स्थानों पर बनीं जिसमें 1467 में बनीं कल्पसूत्र की प्रति को सबसे प्रमुख माना गया। 

कल्पसूत्र पर आधारित कालकाचार्यकथा में सभी जैन तीर्थंकरों के चित्र प्राप्त होते हैं तथा यहाँ यश व् लक्ष्मी देवी के भी चित्र हैं। 



बड़ौदा के जैन भण्डार में 16 देवियों के भी चित्र हैं जिसका चित्रण जैन कलाकारों के द्वारा किया गया है। 

जैन ग्रंथों में 24 तीर्थंकरों के साथ 63 श्लाका पुरषों का भी वर्णन है इसके अतिरिक्त 9 वासुदेव , 9 बलदेव , एवं 12 चक्रवर्ती का भी उल्लेख है। 

जैन शैली के प्रमुख केंद्र माउंटआबू राजस्थान , गिरनार गुजरात , जौनपुर , मांडू , उड़ीसा , नेपाल तथा म्यांमार हैं। 

शटखड्गम दिगम्बरी ताड़पत्र ग्रन्थ है जो 1913 से 1920 के मध्य चित्रित हुआ एवं नेमिनाथ नाम से  एक अन्य ग्रन्थ 1927 में भीलवाड़ा राजस्थान में लिखा गया। 

रायकृष्ण दास ने जैन शैली को अपभ्रंश शैली कहकर पुकारा जिसे अधिकाँश विद्वानों ने स्वीकार किया। 

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