पाल चित्रकला शैली


पाल चित्रकला शैली

पाल  एक प्रमुख भारतीय चित्रकला शैली हैं। ९वीं से १२वीं शताब्दी तक बंगाल में पालवंश के शासकों धर्मपाल और देवपाल के शासक काल में विशेष रूप से विकसित होने वाली चित्रकला पाल शैली थी। पाल शैली की विषयवस्तु बौद्ध धर्म से प्रभावित रही हैं।

इस शैलीमें पोथी चित्र 22. 25 x 2. 25 इंच के ताड़पत्र पर बनते  थे। इस शैली में चित्र महायान और बज्रयान के ग्रंथों की विषय वास्तु पर बने। पाल कलाकारों को  तांबे की मूर्तियां बनाने में  महारत हासिल थी। 



गोपाल नाम के एक सेनानायक ने 730 ईशवी में एक राजवंश की स्थापना की जिसे पाल राजवंश के नाम से जाना गया , इसमें धर्मपाल , देवपाल , नारायणपाल , महिपाल आदि शाशक हुए जिसमे रामपाल अंतिम शाशक थे जिसे हराकर सामंत सेन ने राज्य को अपने अधिकार में कर लिया था। 

धर्मपाल व् देवपाल के काल में पाल शैली को विशेष उन्नति हुई। 

इस शैली का प्रमुख उद्देश्य बौद्ध ग्रंथों को प्रतिबिंबित रूप में विशेष उन्नत करना था। 

इसमें महायान की आकृतियाँ बनाई गईं जो देखने में एक सामान प्रतिबिंबित होती हैं। 

पाल शैली में 24 पोथियाँ चित्रित हैं जिसमें प्रज्ञापरमिता, व् अष्टसंधिका प्रमुख हैं। 

इसके प्रमुख चित्रकार नीलमणि दास , बाल दास , गोपालदास थे। 

इसमें पटचित्र भी प्रचलित थे जिसकी परम्परा आज भी बंगाल  में जीवित है। 

पाल शैली की अधिकांश पोथियाँ एशियाटिक सोसाईटी ऑफ़ बंगाल में सुरक्षित हैं। 

इसमें सवाचश्म चेहरे , लम्बी नासिका व् आँखों का चित्रण किया गया है।  रेखाओं में अकड़न महसूस होती है। 

पाल काल में नालंदा औरओदन्त पूरी जैसे बौद्ध विहारों की रचना हुई। 




लामतारनाथ ने पाल शैली को पूर्वी शैली या नाग शैली भी कहा है। 

धर्मपाल ने बौद्ध अध्ययन केंद्र विक्रम शिला और सोमपुरा बिहार स्थापित किये।  

 

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