षडंग (six limbs): चित्रकला का आधार
षडंग : six limbs : चित्रकला का आधार
रूपभेदः प्रमाणानि भावलावण्ययोजनम।
सादृश्यं वर्णिकाभंग इति चित्रं षडंगकम्।।
षडंग हर महान भारतीय कृति का एक अनिवार्य हिस्सा है।
वास्तविकता के आदर्शीकरण में कलाकार को अपनी आंतरिक सहज शक्ति के अलावा इंद्रियों का ताना-बाना भी अपनाना पड़ता है। ये कानून उन लोगों की रचना है जो उदात्त द्वारा सशक्त अपनी विकसित चेतना के सागर से रत्नों का मंथन कर सकते थे। चाहे वह चित्रसूत्र हो, कामसूत्र हो या नाट्यशास्त्र, इन सभी भारतीय ग्रंथों में ऐसे सभी नियम संतों द्वारा तैयार किए गए हैं। कला शाश्वत, अनिश्चित के साथ एकीकरण को सक्षम करती है। यह मूर्त और सार्वभौमिकता के अवशोषण से परे की यात्रा है। जैसा कि थॉमस मर्टन ने सही कहा, "कला हमें खुद को खोजने और एक ही समय में खुद को खोने में सक्षम बनाती है"।
अजंता के प्राचीन चित्रों से लेकर राजा रवि वर्मा और सभी वर्तमान कलाकारों की कला कृति में अनजाने रूप में इसी षडंग पर आधारित होते हैं , आप देखेंगे कि हर उल्लेखनीय कलाकार ने चुपचाप सभी छह सिद्धांतों का उपयोग किया है। और, यह सिद्धांत तय करते हैं कि क्या आप सही मायने में एक कलाकार बन सकते हैं।
वात्स्यायन विरचित ‘कामसूत्र’ में वर्णित उपरोक्त श्लोक में आलेख्य यानि चित्रकर्म के छह अंग, रूपभेद, प्रमाण, भाव, लावण्ययोजना, सादृश्य और वर्णिकाभंग को बताया गया है। जयपुर दरबार के प्रख्यात विद्वान यशोधर पंडित ने ‘कामसूत्र’ की टीका रूप में ‘जयमंगला’ नामक ग्रंथ की रचना की थी। उस ग्रंथ में उन्होने चित्रकर्म के षडंग की विस्तृत विवेचना की है। प्राचीन भारतीय चित्रकला में यह षडंग हमेशा ही महत्वपूर्ण और सर्वमान्य रहा है। आधुनिक चित्रकला पर पाश्चात्य प्रभाव पड़ने के वावजूद भी यह महत्वहीन नहीं हो सका। क्योंकि षडंग वास्तव में चित्र के सौन्दर्य का शाश्वत आधार है। इसलिए चित्रकला का सौंदर्यशास्त्रीय अध्ययन के लिए इसकी जानकारी आवश्यक है। षडंग के अंतर्गत आनेवाले सभी अंगों का वर्णन निम्नलिखित हैं।
रूपभेद :
वह गुण जिसके कारण किसी आकृति में सौंदर्य अभिव्यक्त होती है उस गुणविशेष को रूप समझा जाता है।
यह विषय की शारीरिक स्थिति पर जोर देता है। यह न केवल रूप (रूप) के ज्ञान पर जोर देता है, बल्कि रूपों के सूक्ष्म और व्यक्तित्व के उभार पर भी ध्यान केंद्रित करता है ।
किसी भी कलाकृति की रूप-रेखा जितनी सुंदर होगी वह कलाकृति उतनी ही उत्कृष्ट होगी। किसी भी कृति के रूप में वह गुण होना चाहिए जिससे भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले मनुष्यों का समान रूप से मनोविनोद हो सके। ऐसा तभी संभव है जब रूप-भेदों की बारीकियों का सम्यक ज्ञान हो। रूप-भेदों की बारीकियों से अनिभिज्ञ होकर कलाकृति की वास्तविकता को नहीं आँका जा सकता है।
प्रमाण :
चित्रकला के षडंग का दूसरा अंग है ‘प्रमाण’। यह वस्तुओं की संरचनात्मक शारीरिक रचना में एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।
साधारण अर्थों में प्रमाण, मान, सीमा, कद और लंबाई-चौड़ाई; अर्थात वस्तु की विवरणात्मक स्थिति को समझा जाता है। चित्रकला में भी प्रमाण से चित्र की विवरणात्मक स्थिति का ही भान होता है। उचित प्रमाण होने से ही चित्र द्वारा मूल वस्तु की यथार्थता का ज्ञान होता है। चित्र द्वारा यथार्थबोध हो इसके लिए चित्रकार में उचित प्रमाण-शक्ति होना आवश्यक है। उचित प्रमाण के आभाव में चित्र सौंदर्यहीन हो जाता है।
भाव :
चित्रकला के षडंग में भाव को तीसरा स्थान प्राप्त है। भाव मूलतः अनुभव का विषय होता है। भाव- योजना भावना, एक भावना या एक इरादे के बारे में बताती है। दर्शन और काव्यशास्त्र में भावों की महत्ता पर शूक्ष्मता और व्यापकता से विचार किया गया है। शरीर इंद्रिय और मन के धर्मों में विकार की स्थिति उत्पन्न करना भाव का काम है। निर्विकार चित्त में प्रथमतः किसी भी तरह का विक्षोभ भाव के द्वारा ही उत्तपन्न होता है। भाव का संबंध किसी-न-किसी विभाव से होता है। मन में जिस भाव का रस उत्पन्न होता है शरीर में उसी के अनुकूल लक्षण प्रकट होने लगते हैं। न केवल मनुष्य का शरीर बल्कि संसार का कोई भी कार्य-व्यापार भाव निरपेक्ष नहीं होता है।
इसलिए चित्र-रचना में भावाभिव्यंजना को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। भिन्न-भिन्न भावों की अभिव्यंजना से कलाकृति में भिन्न-भिन्न विकारों का समावेश होता है। चित्र में भाव, आकृति की भंगिमा से व्यक्त होता है। भावभिव्यंजना के दो रूप होते है : प्रत्यक्ष और अप्रत्यच्छ भावनाएँ। प्रत्यक्ष भावरूप को हम आँखों से देख पाते हैं जबकि प्रच्छन्न भावरूप का अनुभव द्वारा समझा जाता है।
प्रत्यक्ष भावों को कलाकार सहजता से दिखा पाता है जबकि अप्रत्यक्ष भावों को दिखाना उसके लिए बहुत बड़ी चुनौती होती है। अप्रत्यक्ष भावों को दिखा पाने की क्षमता कलाकार की निपुणता का परिचायक होता है। भावों को दिखाने की दक्षता के कारण ही निपुण कलाकारों की कृति में विशिष्टता दिखाई पड़ती है।
लावण्य योजना :
चित्र में लावण्य योजना को चौथा षडंग कहा जाता है। रूप, प्रमाण, और भाव के साथ ही चित्र में लावण्य का होना आवश्यक होता है।
एक कलाकार किसी चरित्र को तब तक सही नहीं ठहरा सकता, जब तक कि यह स्थिति हासिल न हो जाए, यह वह लावण्य है जो उसे उस सुंदरता को दिखाने में सक्षम बनाता है जो दिखने में नहीं, बल्कि वह उस कलाकृति का सार है।
रूप की संगति और परिमिति को ही लावण्य कहते हैं। भाव भीतरी सौन्दर्य का बोधक है जबकि लावण्य के द्वारा बाहरी सौन्दर्य अभिव्यंजित होता है। चित्र में बाह्य अलंकृति, कांति और छाया का समावेश लावण्या योजना के द्वार ही संभव हो पता है। चित्र की नयनाभिरामता का कारक लावण्य योजना ही होती है। निर्जीव प्रतिकृति लावण्य-योजना के कारण ही सजीव दिखाई पड़ने लगती है। वास्तव में लावण्य भावों का पोषण और संवर्धन कर के उसकी सौंदर्यानुभूति में वृद्धि करता है।
समुचित रूप, प्रमाण और भावों के बाद भी लावण्यहीनता के कारण चित्रों में सुंदरता एवं सौम्यता का समावेश नहीं हो पता है। लेकिन लावण्य-योजना भी संतुलित ही होनी चाहिए।
खजुराहो और कोणार्क में भारतीय यक्षी की मूर्तियां लावण्या की पहचान हैं। यहाँ दीदारगंज की यक्षी की अपनी अप्रतिम सुंदरता और कशिश विशेष उल्लेखनीय है। यह जीवन आकार की मूर्ति मौर्यकालीन कला के सबसे महान कलाकृतियों में से एक है। यह एक आदर्श उदाहरण है जहां इसके निर्माता ने वास्तव में उसकी सुंदरता में अनुग्रह को प्रभावित किया है।
सादृश्य :
चित्रकला के षडंग में पाचवें स्थान पर ‘सादृश्य’ का स्थान है। प्रतिकृति का जिस गुण के कारण मूल वस्तु से समानता स्थापित होती है उसे सादृश्य कहा जाता है। इसका कार्य होता है किसी रूप के भाव को दूसरे रूप की सहायता से स्थापित करना। लेकिन किसी मूल वस्तु के बाहरी रंग-रूप की अपेक्षा उसके स्वभाव या धर्म का सादृश्य दिखाना ज्यादा उपयुक्त माना जाता है। कामिनी के मुख और चन्द्र के सादृश्य का यही आधार होता है। कला में संकेतों के प्रयोग के मूल में यह सादृश्य ही होता है।
चित्र में अगर मूल वस्तु के गुण-दोषों का समावेश नहीं होगा तो वह वास्तविक कृति नहीं होगी क्योंकि वह हमारे मन में मूल वस्तु से संबन्धित भाव उत्तपन्न करने में सक्षम नहीं होगी। उदाहरण स्वरूप अगर चित्र में कृष्ण को जटा-जूट या तीर-तलवार के साथ दिखाया जाय तो वह कृष्ण न समझकर कुछ और समझा जाएगा। कृष्ण के लिए सांवला रंग, सलोनी आकृति और कम-से-कम सिर पर मोर पंख का चित्रण तो अनिवार्य ही है तभी सादृश्य की योजना होगी और चित्र विश्वसनीय माना जाएगा। यह स्थूल सादृश्य है लेकिन सूक्ष्म सादृश्य आकृतिपरक न होकर प्रकृति स्वभाव या धर्म की समानता दिखाता है।
चित्र चाहे वास्तविक हो या कल्पना प्रसूत, अगर प्रेक्षकों को उसे पहचाने में कठिनाई नहीं होती है तो वह चित्र शुद्ध माना जाता है। शुद्ध चित्र ही उत्तम चित्र होता है और चित्र तभी शुद्ध हो सकता है जब उसमे सम्यक सादृश्य की योजना हुई हो।
जैसे की विष्णुधर्मोत्तार पुराण के चित्रसूत्र में कई प्रकार की आंखों का उल्लेख है, या उनकी समानता की गई है - जिनमें मछली, शंख, कमल की पंखुड़ियों आदि के रूप में सादृश्य हैं।
वर्णिकाभंग :
वर्णिकाभंग चित्रकला का अंतिम षडंग है।
असंख्य रंग न केवल उपस्थिति का एक पहलू हैं, बल्कि आंतरिक चरित्र की अभिव्यक्ति हैं। एक बहुमुखी कलाकार के हाथों में भी साधारण रंग असाधारण उत्साह का उच्चारण करते हैं।
इसके नाम से ही यह पता चलता है कि यह अंग चित्र में वर्णों (रंग) की योजना के महत्व को बताता है। चित्र में विभिन्न वर्णों के संयोग से जो भंगिमा उत्पन्न की जाती है उसे ही वर्णिकाभंग कहते हैं। वर्णिकाभंग ही हमें यह बताता है कि चित्र में कहाँ किस वर्ण की योजना की जानी चाहिए; किस वर्ण के समीप कौन सा वर्ण होना चाहिए और कौन सा वर्ण किस वर्ण से दूर होना चाहिए। चित्र में उचित वर्णों की योजना से विश्वसनीयता तो आती ही है साथ-ही-साथ एक दूसरे से उनकी समीपता और दूरी उसमें विशिष्ट प्रभाव भी उत्तपन्न करते हैं। इसका कारण यह है कि विभिन्न वर्ण हमारे विभिन्न मनःस्थितियों से जुड़े होते हैं। इसलिए अगर चित्र में वर्णों का उचित संयोजन नहीं हो पाता है तो अन्य अंगो की सम्यक योजना भी निष्फल हो जाती है।
वर्णिकाभंग चित्रकर्म साधना का चरम बिन्दु होता है इसलिए इसे षडगों में अंतिम अंग कहा जाता है। अन्य अंगों की अपेक्षा इसकी साधना समय एवं श्रमसाध्य होती है। इसके लिए लंबे समय तक हाथ में तूलिका लेकर अभ्यास करना होता है। साथ ही वर्णों का ज्ञान भी अपेक्षित होता है।
चित्रकला में प्रमुख वर्ण पाँच माने जाते हैं: उजाला, पीला, लाल, काला और नीला । इन्हीं प्रमुख वर्णों के संयोग से सैंकड़ों उपवर्ण बनाए जाते हैं। किसी भी चित्र में इन्हीं वर्ण-उपवर्णों में से उत्तम वर्णों का चुनाव किया जाता है और हाथ के गंभीर कौशल से उसे संयोजित किया जाता है।
वर्णिकाभंग भंग के लिए लघुता और क्षिप्रता के साथ-साथ हस्तलाघव की भी आवश्यकता होती है। चित्रों में अति सूक्ष्म कार्य जैसे- मांसल सौंदर्य को उभारना, फूलों के सौन्दर्य के साथ उसके सौरभ का आभास करवाना, दिन के विभिन्न प्रहारों में सूर्य के उत्ताप को दिखाना आदि इसी के द्वारा संभव होता है। वर्णिकाभंग में हस्तकौशल की थोड़ी भी विकृति चित्र के सौंदर्य और प्रभाव को नष्ट कर सकता है। इसलिए चित्रकला में वर्णिकाभंग की साधना अतिआवश्यक और कठिनतर मानी जाती है।
निष्कर्ष:
कला का एक काम दृश्य अभिव्यक्ति, रंगो को थोपना और खाली स्थानों से अधिक है। यह न केवल रूप है बल्कि निराकार (व्यंजना) है जो एक कलाकृति की आभा को पूरा करता है। भारतीय सौंदर्यशास्त्री संवेदी थे और सशर्त उन्होंने पूरे विश्वास से जो भी मानदंड प्रस्तुत किये हैं वे आज तक अकाट्य हैं । और इस तरह प्राचीन भारतीय साहित्यिक ग्रंथों में 'षडंग' भारतीय कला का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है।
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