पटना चित्रकला/कंपनी शैली

 पटना चित्रकला/कंपनी शैली

शाहजहां के बाद औरंगजेब ने शाशन की बागडोर अपने हाथ में ली और वह ललित कलाओं के प्रति उदासीन था अतः कलाकारों की पहली शाखा पहाड़ों पर व दूसरी शाखा बंगाल व मुर्शिदाबाद आदि स्थानों पर चली गई। अतः यह शैली मुग़ल व यूरोपिय शैली के मिश्रण से बनी थी। कंपनी शैली को 'पटना चित्रकला' भी कहते हैं एवं यह एक प्रमुख भारतीय चित्रकला शैली है। इसे फिरका शैली या बाज़ार शैली के नाम से भी पुकारा जाता है।  तत्कालीन जनसामान्य के आम पहलुओं के चित्रण के लिए प्रसिद्ध है।  इन चित्रकारों द्वारा चित्र बनाकर ब्रिटेन भी भेजे गये जो आज भी वहां के संग्रहालयों में विद्यमान हैं। यह पुस्तकों को चित्रित करने की शैली है, जो भारत में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी में काम कर रहे ब्रिटिश लोगों की पसंद के आधार पर विकसित हुई थी।



यह शैली सबसे पहले पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में विकसित हुई और बाद में ब्रिटिश व्यापार के अन्य केंद्रों, बनारस (वाराणसी), दिल्ली, लखनऊ व पटना तक पहुंच गई।

इस शैली के चित्र काग़ज़ और अभ्रक पर जल रंगों से बनाए जाते थे।

पसंदीदा विषयों में रोज़मर्रा के भारतीय जीवन, स्थानीय शासकों, त्योहारों और आयोजनों के दृश्य होते थे, जो उस समय के ब्रिटिश कलाकारों के समूह में प्रचलित 'चित्रोपम संप्रदाय' की श्रेणी में आते थे।

कंपनी शैली के सबसे सफल चित्र प्राकृतिक जीवन के थे, लेकिन शैली आमतौर पर मिश्रित थी और इसकी गुणवत्ता की बहुत स्पष्ट पहचान नहीं थी।



कम्पनी शैली की खोज 1943 में पी. सी. मानक ने की थी। 

चित्रकार मनोहर को पटना शैली का पूर्वज माना जाता है। 

ईश्वरी प्रसाद को इस शैली का अंतिम चित्रकार माना जाता है जिनका निधन 1949 में हो गया था। 

यहां के कलाप्रेमी राजा ईश्वरी नारायण सिंह ने कलाकारों को संरक्षण दिया जिसमें डल्लूलाल , लालचंद , गोपालचंद आदि कलाकार कार्य करते थे। 

महिला कलाकारों में दक्षोबीबी व सोनकुमारी भी श्रेष्ठ कलाकार हैं। 


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