पहाड़ी शैली

पहाड़ी शैली

हिमालयी राज्य 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर 19वीं शताब्दी के मध्य तक महान कलात्मक गतिविधियों का केंद्र बने रहे। पहाड़ी शैली दो सुस्पष्ट भिन्न शैलियों - अत्यधिक गहरे रंगों वाली बसोली शैली तथा रुचिकर एवं भावपूर्ण कांगड़ा शैली से मिलकर बनी है। लघु चित्रकारी  और पुस्तकीय चित्रण की पहाड़ी चित्रकला शैली का विकास भारत के इन राज्यों में स्वतंत्र रूप से हुआ।

इसने धर्मनिरपेक्ष एवं दरबारी दृश्यों के चित्रण के अतिरिक्त भागवत पुराण, रामायण, रागमाला श्रृंखला और गीत गोविंद से जुड़ी हुई अनेक कुछ उत्कृष्ट कृतियों और कृतियों के समूहों का चित्रण किया है।

गुलेर शैली -










पहाड़ी शैली में प्रथम गुलेर शैली का उदय 'हरिपुर' गुलेर राज्य में हुआ था। इस राज्य की स्थापना १४०५ में राजा हरिश्चंद्र ने की थी।  गुलेर के सभी शासकों ने कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। इस शैली में व्यक्ति चित्र , दरबारी चित्र, नायिका भेदों का चित्रांकन बहुत सुन्दर और भावपूर्ण हुआ।  पुष्पों से झुकी प्राकृतिक हरियाली के पीछे से छोटे - छोटे भवन दिखाई देते हैं , गोल पहाड़ियों और कदली वृक्षों का अंकन इस शैली की निजी विशेषता है। इसे पूर्व कांगड़ा शैली कहकर भी सम्बोधित किया गया है अर्थात यही शैली आगे जा के काँगड़ा शैली के रूप में विकसित होती है। 


कांगड़ा चित्रकला शैली -

काँगड़ा शैली के प्रमुख केंद्र गुलेर, नूरपुर, सुजानपुर रहे थे।  इसका विकास १८वीं सदी के अंत में हुआ था।  



इसके पहले संरक्षक गुलेर के राजा गोवर्धन चंद और उनके पुत्र प्रकाश चंद तथा बाद में कांगड़ा के राजा संसार चंद।

 पंडित सेउ और उनके दो बेटे नैनसुख, माणक और पंडित सेउ के भाई गुरसौही इसके प्रमुख चित्रकार थे। 

 प्रेम-प्रसंग और भक्ति रहस्यवाद इसकी प्रमुख विषय-वस्तु रही।

 कांगड़ा कला मूल रूप से रेखा-चित्रण की एक कला है। रेखाओं की सूक्ष्मता, रंग की चमक (पीला, लाल और नीला) और अलंकार विवरण की बारीकी इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं। रंगों का निर्माण वनस्पतियों और खनिजों से होता है।

 बसौहली पहाड़ी-

विद्वानों के अनुसार जम्मू और कश्मीर प्रदेश में विकसित शैली को  - बसौहली  पहाड़ी शैली  में कहा जाता है। बसौहली  शैली के अंतर्गत रसमंजरी लघु चित्रकारी श्रृंखला के चित्र अनेक भारतीय और विदेशी संग्रहालयों में रखे हुए हैं। बसौहली  में कृष्णपाल , हिंदपाल , कृपालपाल , धीरजपाल आदि राजाओं ने शाशन किया। परन्तु इन राजाओं में कृपालपाल को बसौहली शैली का प्रमुख संरक्षक और प्रवर्तक माना जाता है। 


 जयदेव की “गीत गोविंद”, “बिहारी की सतसई”, “भागवत पुराण”, नल और दमयंती की प्रेम कथा तथा केशव दास की रसिकप्रिया एवं कविप्रिया को लघु चित्रकारी के रूप में चित्रित किया गया। संगीत की विधाओं (रागमाला) और ऋतुओं (बारहमासा) को भी चित्रित किया गया। पहाड़ी राजाओं के चित्र भी बनाए गए।

पहाड़ी शैली में पौधों, लताओं और पत्तों वाले वृक्षों की पृष्ठभूमि सहित प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण विशेषताएं । महिलाओं के चेहरे पर नाक ललाट के अनुरूप रेखीय, आँखें लंबी और संकीर्ण होती हैं और ठुड्डी तीक्ष्ण होती है।

उपर्युक्त शैलियों के अतिरिक्त पहाड़ी शैली में चम्बा , कुल्लू , गढ़वाल , मण्डी , जम्मू , एवं सिख शैली भी उल्लेखनीय हैं। 

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