बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट


बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट 

जब भी इतिहास में क्रांति घटित हुई है वह हमेशा किसी की भिन्न सोच और साहस के कारण ही सम्भव हुई है जैसा कि हेनरी मातिस ने भी कहा है - "रचनात्मकता साहस लेती है।" ऐसी ही एक कहानी है भारतीय कला इतिहास में जिसे 'बंगाल का नवजागरण' के नाम जाना जाता है। यह उपनिवेशवाद और पूंजीवाद के समय प्रचलित विभिन्न कलात्मक पक्षों के समक्ष भारतीय आधुनिक परिवेश को स्थापित करने वाले साहसपूर्ण कलाकारों की कहानी है। इनमें से किसी भी विद्वान ने पश्चिमी शास्त्रीय कला को नहीं अपनाया।  इन कलाकारों ने अपना मार्ग प्रशस्त किया, अपनी कला पहचान बनाई और इस नई एवं मधुर कलात्मक तकनीक को पूरी दुनिया ने सराहा।

 


इस जागरण का विशेष महत्व इसलिए भी है कि आज जो हम पश्चिम की ओर ललचाई हुई दृष्टि से देखते हैं वहीं पश्चिम ने 'भौतिकवाद' से बचने के लिए पूर्व की ओर देखा और विशेष रूप से बुद्ध और उनके जीवन पर कई चित्रों से आकर्षित हुआ। भारतीय आधुनिकतावादियों ने अपनी कला के काम में कई पश्चिमी शैलियों - शास्त्रीय, घनवाद, आदिमवाद, अमूर्तता को भी आत्मसात किया। लेकिन यहां भारतीय लोगों ने अपनी आध्यात्मिक पहचान को व्यक्त करते हुए - अपने रंगों और विवरणों के साथ चित्रों को समृद्ध किया - जैसा कि पश्चिमी दुनिया ने नहीं देखा था। 

करीब एक सदी तक बदलती हुई आधुनिक दुनिया के प्रति बंगाल की चेतना शेष भारत के मुकाबले आगे रही। 

सरल शब्दों में इस आंदोलन को दो भागों में वर्णित किया जा सकता है। पहला- राजनीतिक, आर्थिक ठहराव और बौद्धिक ठहराव की अवधि के बाद पुनरुत्थान को स्पष्ट रूप से निरूपित करना , और दूसरा- विचारों, साहित्य और कला के इतिहास में विशिष्ट प्रकार के विकास का वर्णन , व्यापक रूप से यह मानवतावादी और तर्कसंगत तत्वों के संदर्भ में यह  १५वीं और १६वीं शताब्दी के यूरोपीय पुनर्जागरण से तुलनीय है।

 बंगाल के नवजागरण की शुरुआत राममोहन राय से हुई और रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ उसका समापन हो गया। बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट की कहानी 1900 के दशक में शुरू होती है, 1920 के दशक में चरम पर पहुंच गई और 1930 के दशक में धीमी हो गई।

यहां हम राजराममोहनराय आदि महान विचारकों जिन्हें आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है एवं जोकि  ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे, के विषय में चर्चा की अपेक्षा भारतीय बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट की कहानी पर चर्चा करने जा रहे हैं तो आइये अब हम इसके महत्वपूर्ण बिंदुओं को जाने - 

* बंगाल स्कूल राजा रविवर्मा और ब्रिटिश कला स्कूलों जैसे भारतीय कलाकारों द्वारा भारत में प्रचारित शैक्षिक कला शैलियों के खिलाफ प्रतिक्रिया दे रहे एक अवंत गार्डे और राष्ट्रवादी आंदोलन के रूप में उभरा।

* बंगाल स्कूल का जन्म कोलकाता और विशेष रूप से शांतिनिकेतन में हुआ था, और 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में ब्रिटिश राज के दौरान पूरे भारत में विकसित हुआ था। 

* रवींद्रनाथ टैगोर के एक भतीजे अबानिंद्रनाथ टैगोर ने ई. वी. हैवेल के साथ बंगाल स्कूल की स्थापना की थी। 

* 'भारत माता’ की पेंटिंग्स के माध्यम से, अबानिंद्रनाथ ने हिन्दू देवी देवताओं के आधार पर भारत माता के चार हाथ दिखाए हैं। जोकि इस स्कूल की एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की भी विशेष पहचान बनी।  

* बंगाल स्कूल के पेंटर्स और कलाकार नंदलाल बोस, अब्दुल रहमान चुगताई, सुनयनी देवी (अबानिंद्रनाथ टैगोर की बहन जोकि भारत की प्रथम कलाकारा मानी  जाती  हैं  ), मनीशी डे, मुकुल डे,  असित कुमार हल्दार, सुधीर रंजन खास्तगीर, क्षितिंद्रनाथ मजूमदार, सुगरा रबाबी, देवी प्रसाद रॉयचौधरी,   गगनेंद्रनाथ टैगोर ( अवनींद्र नाथ टैगोर के भाई)  सरादा उकील आदि थे।

* जहाँ कला जगत में बढ़ती हुई भारतीयता से डरे हुए अंग्रेजों ने इसकी आलोचना की वहीं  ई. वी. हैवेल ने भारतीय कला इतिहास पर अनेक किताबें लिखीं व बंगाल स्कूल के निर्माण और प्रोत्साहित करने में विशेष योगदान दिया। 

* बंगाल शैली की प्रेरणा मुख्य रूप से अजंता , मुग़ल और राजस्थानी चित्रकलाओं से ली गई थी।  

* अबानिंद्रनाथ को वाश तकनीक का जन्मदाता कहा जाता है जोकि जापानी शैली का मिश्रण थी। 

* इस शैली में रंग संयोजन कोमल और सामंजस्यपूर्ण हैं और मुख्यतः जल रंगों का प्रयोग किया गया है। 

* विषय वस्तु भारतीयता से ओतप्रोत है - यहाँ ऐतिहासिक , पौराणिक एवं साहित्यिक परिवेश का ध्यान रखा गया है।  

* विभिन्न शैलियों के मिश्रण एवं स्वाभाविक, सरल एवं स्पष्ट होने के कारण बंगाल शैली को समन्यवादी शैली कहा भी कहा जाता है। 

 इसके विभिन्न कलाकारों के जीवन, कार्य एवं विशेषताओं को आप मेरे अन्य ब्लॉग में जानेंगें। 

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