Indian traditional art

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इंडियन ट्रेडिशनल आर्ट 

हर राष्ट्र अपनी कुछ अलग पहचान रखता है और उसको विशेष रूप से उसकी कला माध्यम से जाना जा सकता है।  भारतीय कला यहां की प्राकृतिक , सांस्कृतिक, प्रान्तिक और धार्मिक चिन्हों को लेकर अपनी पहचान बनाती है।  इसके लिए हमें भारत के प्रान्तिक ( ट्रेडिशनल ) कला को समझना होगा।  

भारतीय कला में यहां की ट्राइबल और फोक कला सम्मिलित होती है।  भारतीय कला में ज्वेलरी , स्टेचू , पेंटिंग, हेंडीक्राफ्ट सम्मिलित होते हैं जो भौगोलिक रूप से विभिन्न क्षेत्र में विकसित हुए।  

भारतीय कला को समझने के लिए हमें लगभग सभी इंडियन ट्रेडिशनल आर्ट को बारीकी से देखना और समझना पड़ेगा - उसमें किस प्रकार से कलात्मक डिटेल की गई है?  क्या कलर यूज़ हुए हैं ?  उनके पीछे क्या कहानियां हैं ? और उसकी धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व क्या है ?  इसके लिए पहले  हम विभिन्न कलाओं को देख समझ लेते हैं।  

भारत की लोक चित्रकला

भारत के विभिन्न - क्षेत्र या स्थान की जातियों व जनजातियों में पीढी दर पीढी चली आ रही पारंपरिक कलाओं को लोककला कहते हैं। भारत जैसें देश में विभिन्न प्रान्तों में विविध रूपों में लोककला देखी जा सकती है। जो विभिन्न नामों से जानी जाती है, जिसकी चर्चा नीचे की गयी है।

1. राजस्थानी चित्रशैली / राजपूत पेन्टिंग


 राजस्थानी चित्रशैली का पहला वैज्ञानिक विभाजन आनन्द कुमार स्वामी ने किया था। उन्होंने 1916 में ‘राजपूत पेन्टिंग’ नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने राजपूत पेन्टिंग में पहाड़ी चित्रशैली को भी शामिल किया। परन्तु अब व्यवहार में राजपूत शैली के अन्तर्गत केवल राजस्थान की चित्रकला को ही स्वीकार करते हैं। वस्तुतः राजस्थानी चित्रकला से तात्पर्य उस चित्रकला से है, जो इस प्रान्त की धरोहर है और पूर्व में राजपूताना में प्रचलित थी।

भारत में राजस्थानी चित्रकारी की कला का प्रारम्‍भ मुगलों द्वारा किया गया जो इस भव्‍य अलौकिक कला को फ़राज (पार्शिया) से लेकर आए थे। छठी शताब्‍दी में मुगल शासक हुमायुं ने फराज से कलाकारों को बुलवाया जिन्‍‍हें लघु चित्रकारी में विशेषज्ञता प्राप्‍त थी। उनके उत्तराधिकारी मुगल बादशाह अकबर ने इस भव्‍य कला को बढ़ावा देने के प्रयोजन से उनके लिए एक शिल्‍पशाला बनवाई। 

2 . कालीघाट चित्रकला

इस चित्रकला का का उद्गम् लगभग 19वीं सदी में कोलकाता के कालीघाट मंदिर में हुआ माना जाता है। इस चित्रकला में मुख्यतः हिन्दू देवी-देवताओं तथा उस समय पारम्परिक किमवदंतियों के पात्रों के चित्रण विशेषतः देखने को मिलते हैं। प्राचीन समय में इस कला के चित्रकार विभिन्न देवी-देवताओं का चित्रण इस कला द्वारा लोगों को पट चित्र में गा-गाकर सुनाया करते थे। इस शैली की चित्रकला में चित्रकार लम्बे-लम्बे कागजों में रामायण, महाभारत व अन्य किम्वदन्तियों पर आधारित दृश्यों का चित्रण करते हैं तथा गाकर उस चित्रण का व्याख्यान करते हैं।

3 . फर्श चित्रकला (रंगोली  चित्रकला)

यह भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक-कला है। अलग अलग प्रदेशों में अलग-अलग नाम जाती है। इसे सामान्यतः त्योहार, व्रत, पूजा, उत्सव विवाह आदि शुभ अवसरों पर सूखे और प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता है। यह उत्तर प्रदेश में चाक पूर्ण  उत्तराखंड में एपन ,राजस्थान में मंडाना; आंध्र प्रदेश में मगुल्लू; बिहार में अरिपाना; महाराष्ट्र में रंगोली; पश्चिम बंगाल में अल्पाना; गुजरात में अथिया; कर्नाटक में रंगवाली; तमिलनाडु में कोल्लम; हिमाचल प्रदेश में अरोफ; और केरल में कलमा जट्टू जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता है।

4 . वर्ली चित्रकला

इस चित्रकला के नाम का संबंध महाराष्ट्र के जनजातीय प्रदेश में रहने वाले एक छोटे से जनजातीय वर्ग से है। ये अलंकृत चित्र गोंड तथा कोल जैसे जनजातीय घरों और पूजाघरों के फर्शों और दीवारों पर बनाए जाते हैं। वृक्ष, पक्षी, नर तथा नारी मिल कर एक वर्ली चित्र को पूर्णता प्रदान करते हैं। ये चित्र शुभ अवसरों पर आदिवासी महिलाओं द्वारा दिनचर्या के एक हिस्से के रूप में बनाए जाते हैं। इन चित्रों की विषयवस्तु प्रमुखतया धार्मिक होती है और ये साधारण और स्थानीय वस्तुओं का प्रयोग करके बनाए जाते हैं जैसे चावल की लेही तथा स्थानीय सब्जियों का गोंद और इनका उपयोग एक अलग रंग की पृष्ठभूमि पर वर्गाकार, त्रिभुजाकार तथा वृत्ताकार आदि रेखागणितीय आकृतियों के माध्यम से किया जाता है। पशु-पक्षी तथा लोगों का दैनिक जीवन भी चित्रों की विषयवस्तु का आंशिक रूप होता है। शृंखला के रूप में अन्य विषय जोड़-जोड़ कर चित्रों का विस्तार किया जाता है।

वर्ली जीवन शैली की झांकी सरल आकृतियों में खूबसूरती से प्रस्तुत की जाती है। अन्य आदिवासीय कला के प्रकारों से भिन्न वर्ली चित्रकला में धार्मिक छवियों को प्रश्रय नहीं दिया जाता और इस तरह ये चित्र अधिक धर्मनिरपेक्ष रूप की प्रस्तुति करते हैं।

5 . मधुबनी चित्रकला

यह मिथिलांचल क्षेत्र जैसे बिहार के दरभंगा, मधुबनी एवं नेपाल के कुछ क्षेत्रों की प्रमुख चित्रकला है। मधुबनी जिले के जितवारपुर गांव इस लोक चित्रकला का मुख्य केंद्र है। शुरुवाती दौर में यह चित्रकला रंगोली के रूप में विकसित हुआ फिर बाद में यह कला धीरे-धीरे आधुनिक रूप में कपड़ो, दीवारों एवं कागज पर उतर आई। मिथिला की औरतों द्वारा शुरू की गई थी।  


6 . पट्टचित्र कला

'पट्ट' का अर्थ 'कपड़ा' होता है। यह ओड़िशा की पारम्परिक चित्रकला है। इस चित्रकला में सुभद्रा, बलराम, भगवान जगन्नाथ, दशवतार और कृष्ण के जीवन से संबंधित दृश्यों को दर्शाया जाता है। शास्त्रीय भाषाओं के रूप में कौन कौन सी भारतीय भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है

7 . पिथोरा चित्रकला

यह गुजराती के राठवास और भील जनजाति के लोगों का पारम्परिक चित्रकला है। यह कला रूप के बजाय अनुष्ठान से अधिक है।

8 . कलमकारी चित्रकला

'कलमारी' का शाब्दिक अर्थ है कलम से बनाए गए चित्र। यह भारत की प्रमुख लोककलाओं में से एक है। क़लमकारी एक हस्तकला का प्रकार है जिस में हाथ से सूती कपड़े पर रंगीन ब्लॉक से छाप बनाई जाती है। क़लमकारी शब्द का प्रयोग, कला एवं निर्मित कपड़े दोनो के लिए किया जाता है। मुख्य रूप से यह कला भारत के आंध्र प्रदेश राज्य के कृष्णा जिले के मछलीपट्टनम एवं ईरान में प्रचलित है।

9. थांका चित्रकला

भगवान बुद्ध के जीवन और उनकी शिक्षाओं पर आधरित चित्रकला को थंका चित्रकला कहते हैं। यह चित्रकला भारतीय, नेपाली तथा तिब्बती संस्कृति की अनुकाम मिसाल है। इस के माध्यम से तिब्बती धर्म, संस्कृति एवं दार्शनिक मूल्यों को अभिव्यक्त किया जाता रहा है। इस का निर्माण सामान्यत: सूती वस्त्र के धुले हुए काटल कार किया जाता है।

इस चित्रकला को आध्यात्मिक चित्रकला भी कहते हैं क्योंकि इस चित्रकला का विषय धार्मिक-आध्यात्मिक ही होता है। चूंकि यह भगवान बुद्ध के जीवन और उनकी शिक्षाओं पर आधरित चित्रकला होती है इसलिए इसे बौद्ध चित्रकला भी कहा जाता है।

10. लघु कला चित्रकारी( मिनिएचर आर्ट ) 

लघु चित्रकारी (Miniature painting) भारतीय शास्त्रीय परम्परा के अनुसार बनाई गई चित्रकारी शिल्प है। “समरांगण सूत्रधार” नामक वास्तुशास्त्र में इसका विस्तृत रूप से उल्लेख मिलता है। इस शिल्प की कलाकृतियाँ सैंकड़ों वर्षों के बाद भी अब तक इतनी नवीन लगती हैं मानो ये कुछ वर्ष पूर्व ही चित्रित की गई हों।

11. कांगड़ा चित्रकला 

कांगड़ा चित्रकला का विकास कचोट राजवंश के राजा संसार चन्द्र के कार्यकाल में हुआ। यह चित्रकला शैली दर्शनीय तथा रोमाण्टिक है।

पौराणिक कथाओं और रीतिकालीन नायक- नायिकाओं के चित्रों की प्रधानता कांगड़ा चित्रकला में है। गौण रूप में व्यक्ति चित्रों को भी स्थान दिया गया है।

इस चित्रकला शैली में सर्वाधिक प्रभावशाली आकृतियाँ स्त्रियों की हैं, जिसमें चित्रकारों ने भारतीय परम्परा के अनुसार नारी के आदर्श रूप को ही ग्रहण किया है।

कांगड़ा शैली के स्त्री चित्रों में सत्कुल को अभिव्यक्त करने वाले वस्त्र, चाँद-सी गोल मुखाकृति, बड़ी-बड़ी भावप्रवण आँखें, भरे हुए वक्ष, लयमान उंगलियाँ, मुख में छिपा हुआ रहस्यमय भाव सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। यह नितांत निजी शैली है, जिसकी विशेषता नारी- सौन्दर्य के प्रति अत्यधिक झुकाव है।

कांगड़ा चित्रकला शैली में प्राकृतिक, विशेषकर पर्वतीय दृश्यों का भी चित्रण किया गया है।

12. तंजौर चित्रकला

यह कला लोक कला और कहानी-किस्से सुनाने की विस्मृत कला से जुड़ी है। तंजौर की प्रसिद्ध चित्रकारी पारंपरिक कला का ही रूप है। इस कला ने भारत को विश्व मंच पर प्रसिद्धि दिलाने में महती भूमिका निभाई है।तंजौर चित्रकला का विषय मुख्य रूप से हिन्दू देवता और देवियाँ हैं। श्रीकृष्ण इनके प्रिय देव थे, जिनके विभिन्न मुद्राओं में चित्र बनाए गए हैं, जो उनके जीवन की अवस्थाओं को व्यक्त करते हैं।

तंजौर चित्रकारी की मुख्य विशेषताएँ उनकी बेहतरीन रंग की सज्जा, रत्नों और कांच से गढ़े गए सुंदर आभूषणों की सजावट और उल्लेखनीय स्वर्ण पत्रक का काम है।


13. गोंड कलाकृतियाँ

मध्यप्रदेश के मण्डल जिले की प्रसिद्ध जनजातियों में से एक 'गोंड' द्वारा बानायी गयी चित्र कला की विशिष्ट कलाशैली को गोंड चित्रकला के नाम से जाना जाता है। लम्बाई और चौड़ाई केवल इन दो आयामों वाली ये कलाकृतियाँ खुले हाथ बनायी जाती हैं जो इनका जीवन दर्शन प्रदर्शित करती हैं। गहराई, जो किसी भी चित्र का तीसरा आयाम मानी गयी है, हर लोककला शैली की तरह इसमें भी सदा लुप्त रहती है जो लोक कलाओं के कलाकारों की सादगी और सरलता की परिचायक है।

राजपूत चित्रशैली, भारतीय चित्रकला की प्रमुख शैली है। राजस्थान में लोक चित्रकला की समृद्धशाली परम्परा रही है। मुगल काल के अंतिम दिनों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक राजपूत राज्यों की उत्पत्ति हो गई, जिनमें मेवाड़, बूंदी, मालवा आदि मुख्य हैं। इन राज्यों में विशिष्ट प्रकार की चित्रकला शैली का विकास हुआ। इन विभिन्न शैलियों में की विशेषताओं के कारण उन्हे राजपूत शैली का नाम प्रदान किया गया।


* इस प्रकार विविध भारतीय कलाएं - हमारे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक मूल्यों के दर्पण के रूप में  विशेष महत्व रखती हैं ।  यहाँ हमने इन कलाओं को बहुत संक्षिप्त में जाना , आगे के ब्लॉग में मैं इन कलाओं पर विस्तृत चर्चा भी करुँगी। 

* जिस देश की कला जितनी समृद्ध होती है वैचारिक रूप से वह देश उतना ही समृद्ध होता है।  

👉क्या ये ब्लॉग किसी भी प्रकार से आपके लिए सहायक है या आपके सुझाव इस विषय में क्या हैं  ... और आप आगे किन विषयों पर ब्लॉग पढ़ना चाहते हैं  ... कृपया अपने महत्वपूर्ण सुझाव दीजिये 🙏


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